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ठठेरा - बर्तन व्यवसाइयो का इतिहास...
हम बचपन से ही जिस ‘ठ’ से ‘ठठेरा’ को बचपन से ही पढ़ते सुनते आ रहे हैं वो आख़िर है क्या...
प्राचीन काल से ही जीवन यापन के लिए जिस तरस से रोटी, कपड़ा और मकान की आवश्यकता रही है ठीक उसी प्रकार जीवन यापन (भूख को मिटाने) के लिए खाद्यान्नों को पकाने और बनाने के लिए बर्तनो का आविष्कार समय के अनुसार बनता और बदलता रहा है, तथा प्राचीन काल से ही जब से धातु के बर्तनो जो प्रयोग शुरू हुआ तभी से लेकर आज तक बर्तन के कार्य को बनाने और उनका व्यापार करने वाले विभिन्न स्थानो और रूपों में विभिकराते आ रहे हैं/
समय के साथ बर्तनों के रूप और पध्दिति में बदलाव आया जिससे आज का बर्तन उद्योग और उसका कार्य और व्यापार करने वाले भी प्रभावित हुए हैं । इतिहास गवाह है की जब धातु नहीं थे तब मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग बहुधा हुआ करता था और सभी लोग उसी बर्तन का उपयोग जीवन यापन के लिए करते थे। जब से धातु खनिज का अविष्कार हुआ तब से वर्तमान तक विभिन्न धातुओं के बर्तनों का प्रयोग विभिन्न रूपों में किया जाता रहा है ।
वर्तमान में स्टील, प्लास्टिक, फ़ाइबर और बोन चाइना के बर्तनों का प्रयोग शुरू हो गया है, जिसमें स्टील के बरतों का प्रयोग बहुतायत से ही रहा है। जिसके कारण हस्त निर्मित बर्तनों का बाज़ार और उपयोगिता कम हो रही है जिसका एक कारण तो उसका महँगा होना है तो दूसरी ओर महँगाई और कारीगरों की अनुपलब्धता के कारण यह उद्योग बंद हो रहें हैं । क्यों कि इनकी लागत और मूल्य अन्य प्रकार के उपलब्ध बर्तनों की तुलना में अत्यधिक है। प्राचीन काल से ही धातु के बर्तन को पिट-पिट कर ठक ठक की आवाज़ होने के कारण उक्त समूह के कार्य करने वाले लोगों को ठठेरा नाम से पुकारा जाने लगा, बाद के समय में यही धातु के विभिन्न प्रकार के बर्तनों के रूप देने वालों जैसे की काँसा धातु के बर्तन बनाने वालों को कसेरा, ताँबे के बर्तनों का निर्माण करने वाले लोगों को तमेरा आदि, जिसमें विभिन्न समुदायों के कारीगर एक समूह में साथ रहकर एक दूसरे के कार्य में सहयोग प्रदान करते थे और बर्तनों के वास्तविक स्वरूप में आने के बाद उनको बाज़ार में बेचा जाता था, इसके लिए पूरे देश में जगह जगह पर बर्तन के एक व्यापार केंद्र हुआ करते थे जो प्रायः ठठेरा बाज़ार, ठठेरी बाज़ार और कसेरा बाज़ार, बर्तन वाली गली या बर्तन बाज़ार के नाम से जाने जाते थे और वर्तमान समय में भी ये नाम प्रचलन में हैं। इसमें यहाँ यह बतलाना अत्यधिक उचित होगा की ठठेरा कोई एक जाति वर्ग नहीं था जैसा कि उसका प्रचालन बाद के समय में होता आ रहा है, पूरे भारत में यह कार्य व्यापक रूप से विभिन्न जाति धर्म के लोगों द्वारा किया जाता रहा है और इसका व्यापार पूरे देश में उस काल परिवेश के रूप में समझा और जाना जाता रहा है। पुराणों ग्रन्थों से लेकर आज के आधुनिक सामाजिक पुस्तकों/लेखों में कहीं भी यह कार्य और व्यापार करने वालों को एक जाति से नहीं जाना जाता है और ना ही इसका कही के सरकारी दस्तावेज़ो में इसकी प्रामाणिकता है।
अब हम उक्त कार्य के करने वाले एक समूह के कार्य इतिहास और जीवन शैली पर प्रकाश पर प्रकाश डालना चाहेंगे, आज के इस आधुनिक युग में उस समूह/ वर्ग की क्या सामाजिक स्थिति है, और यह वर्ग समुदाय क्यों एक उच्च जाति का होते हुए भी हीन दीन और पिछड़ा हुआ है।
आइए इस वर्ग के इतिहास को जानने के लिए थोड़ा पुराणों का ज्ञान करना होगा जिसमें आप यदि परशुराम सहस्त्रबाहु युद्ध के बारे में जानते हो तो इस जाति के बारे में और अच्छी तरह से समझ सकते हैं। यह समुदाय जाति वास्तव में एक क्षत्रिय जाति का ही रूप है जोकि चंद्रवंश की शाखा हैहयवंश में महाराज सहस्त्रबाहु के वंश से जानी जाती है।
हम पुराणों के माध्यम से सहस्त्रबाहु के जीवनी को भली भाती जान सकते हैं। जिसमें इस क्षत्रिय जाति का सात बार ऋषि परशुराम द्वारा पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन करने का कार्य किया गया जोकि ऋषि होते हुए भी स्वयं एक क्षत्रिय थे, फिर भी क्षत्रियों का पूर्ण विनाश नहीं कर सके थे, क्योंकि उस विनाश में ही क्षत्रियों ने अपना स्वरूप और कार्य बदल लिया था जिससे वह उनकी पहचान नहीं जान सजाते थे और फिर वह युद्ध स्वतः समाप्त हो गया। क्षत्रियों ने अपना अस्तित्व बचाने के लिए विभिन्न प्रकार के कार्यों में लिप्त हो गए थे जिसमें से एक कार्य धातु का निर्माण रहा क्योंकि क्षत्रिय गुण के कारण धातु के प्रयोग के बारे में जानकारी उन्हें पहले से ही थी जोकि शस्त्र-निर्माण, रक्षा सामग्री निर्माण का कार्य स्वतः किया करते थे तो वो बड़े ही आसानी से इस कार्य करने वाले समूह में छिप कर अपनी जान बचा ली थी। परशुराम-सहस्रबाहु युद्ध तो समाप्त हो गया पर परशुराम के पिता द्वारा दिया गया अभिशाप से यह जाति और समाज आज भी बाहर नहीं निकल पा रहीं है जबकि वर्तमान में हम कलयुग में जी रहे हैं।
युगों के परिवर्तन के साथ तो सब कुछ बदल जाता है पर यह श्राप जो की भय के रूप में इस समुदाय का पीछा कर रही हो अभी तक बाहर नहीं निकल पा रहा है।
श्राप के अलावा सामाजिक आर्थिक असुरक्षा-अज्ञानता के कारण तथा एक लंबे समय तक अपना कार्य और स्वरूप बदल देने के कारण भी हम अपनी पहचान पुनः से पाने के लिए संघर्षशील हैं। इस समुदाय/ जाति के लोग अब जैसे जैसे शिक्षित हो रहे हैं लोग अपने पहचान को पाने के लिए व्याकुल हो रहे हैं। इतिहास गवाह है की किसी के लिए भी समय कभी एक नहीं रहा है बहुत से जाति समुदाय का पतन हुआ है तो बहुत से नये समुदाय जाति का उदय भी हुआ है, जो लोग कल तक सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े और दबे हुए थे वो आज आगे बढ़ रहे हैं और देश समाज उनको उच्च स्थान दे रहा है, और बहुत सी समुदाय जाति समाप्त और पीछे होते जा रहे हैं तो यह परिवर्तन हमेशा होता रहेगा।
जब भी जागे तभी से सवेरा और सफलता के लिए शुरुआत ज़रूरी है अतः हमें सारे भेदभाव छोड़कर एक जुटता के साथ अपनी खोयी हुयी पहचान को पुनः से बनानी चाहिए। जिसके लिए आज पूरी समुदाय जाति अपने अपने तरीक़े और सुविधा अनुसार विभिन्न जगहों पर अपनी अपनी ज्ञान और शक्ति के साथ संघर्ष कर रहे हैं, इतना तो अवश्य बदलाव आया हैं की हर व्यक्ति जो उस समुदाय को जानता और समझता है उसे पुनः स्थापित करना चाहता है।